Delving into the verdict on the Shiv Sena Issue, The Hindu Editorial Analysis
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शिवसेना के मुद्दे पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय पेचीदा है क्योंकि दोनों पक्ष इसे अपने निमित्त के अनुकूल मानते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के राज्यपाल के फ्लोर टेस्ट के आह्वान को अवैध बताते हुए फैसले की कड़ी आलोचना की। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि राज्यपाल, एक संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में, दल के भीतर अथवा दलों के मध्य आंतरिक दलीय संघर्षों अथवा विवादों में स्वयं को उलझाने से बचना चाहिए।
संविधान पीठ, हालांकि, एकनाथ शिंदे को एक वैकल्पिक सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के राज्यपाल के फैसले में कोई त्रुटि नहीं पाती है, क्योंकि जब सरकार गिरती है तो ऐसी संभावनाओं का पता लगाना राज्यपाल के संवैधानिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत आता है।
लोकतांत्रिक राष्ट्रों में देखी जाने वाली सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत प्रथा के अनुसार, जब कोई सरकार गिरती है, तो संवैधानिक प्रमुख, चाहे वह राज्यपाल हो अथवा राष्ट्रपति, आमतौर पर यह पता लगाने का प्रयत्न करते हैं कि क्या विपक्ष का नेता नई सरकार बना सकता है।
व्हिप की अवहेलना करने वाले विधायकों को अयोग्य ठहराने का प्रश्न ही व्हिप की वैधता निर्धारित करने का मौलिक मुद्दा उठाता है। इस मामले में, शिवसेना पार्टी के भीतर दोनों गुटों ने अपने सभी सदस्यों को व्हिप जारी किया, जिसके परिणामस्वरूप पारस्परिक अयोग्यता याचिकाएँ हुईं। न्यायालय ने उचित रूप से इस बात पर बल दिया कि अयोग्यता याचिका पर प्रारंभिक निर्णय स्पीकर के हाथ में होना चाहिए। परिणामस्वरुप, अयोग्यता का मामला विधानसभा अध्यक्ष को वापस भेज दिया गया है।
निर्णय, वैध पक्ष का निर्धारण करने में गुटों एवं विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका पर चर्चा करके, भ्रम के स्तर का परिचय देता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक अधिक निर्णायक रुख, स्पष्ट रूप से उद्धव ठाकरे की पार्टी को वैध व्हिप जारी करने के अधिकार के साथ मूल राजनीतिक दल के रूप में घोषित करना, मुंबई में भ्रम की वर्तमान स्थिति को रोक सकता था।
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