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प्रासंगिकता
- जीएस 3: संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण एवं अवक्रमण, पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन।
प्रसंग
- एम्बर, एक स्वतंत्र ब्रिटिश ऊर्जा थिंक-टैंक, और बैंगलोर स्थित क्लाइमेट रिस्क होराइजन्स ने हाल ही में “इंडियाज़ ज़ोंबी थ्रेट” शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि भारत को वित्तीय वर्ष 2030 तक अपेक्षित मांग वृद्धि को पूरा करने के लिए अतिरिक्त नई कोल क्षमता की आवश्यकता नहीं है।
- कुछ दिनों पहले, इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) ने रिन्यूएबल एनर्जी एंड लैंड यूज इन इंडिया बाय मिड सेंचुरी नामक एक रिपोर्ट जारी की।
“ज़ोंबी” परियोजनाएं क्या हैं?
- एम्बर क्लाइमेट रिपोर्ट कहती है कि 27 गीगावाट पूर्व-अनुमत एवं स्वीकृत नवीन कोल विद्युत संयंत्र के प्रस्ताव अब आवश्यकताओं के अतिरिक्त हैं एवं संभावित रूप से “ज़ोंबी” संयंत्रों के रूप में समाप्त हो जाएंगे- ऐसी संपत्तियां जो अस्तित्व में तो होंगी, किंतु क्रियाशील नहीं होंगी।
- ये अधिशेष संयंत्र, यदि निर्मित किए जाते हैं, तो दुर्लभ संसाधनों को अवशोषित कर लेंगे एवं भारत की नवीकरणीय ऊर्जा (आरई) महत्वाकांक्षाओं को बाधित करेंगे।
- किंतु भविष्य की मांग को पूर्ण करने हेतु ऊर्जा व्यवस्था की क्षमता का त्याग किए बिना उन्हें निरस्त किया जा सकता है।
मुख्य बिंदु
- एम्बर अनुसंधान रिपोर्ट के अनुसार, यदि भारत 5 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से वृद्धि करता है, तो 2030 तक भारत की अधिकतम मांग 301 गीगा वाट तक पहुंच जाएगी।
- रिपोर्ट में कहा गया है कि भले ही भारत की ऊर्जा की मांग में प्रतिवर्ष 5% की वृद्धि होती है, वित्तीय वर्ष 2030 में कोयला आधारित उत्पादन वित्तीय वर्ष 2020 की तुलना में कम होगा, जब तक भारत अपने नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों को प्राप्त करता है।
- भारत ज़ोंबी कोयला परियोजनाओं का ” हनन” करके 247,000 करोड़ रुपये से अधिक मुक्त कर सकता है।
- इन अनावश्यक ‘ज़ोंबी’ कोयला संयंत्रों को परिवर्जित कर, भारत न केवल लाखों करोड़ रुपये बचा सकता है, बल्कि ऊर्जा की लागत में भी कमी कर सकता है एवं अपने स्वच्छ ऊर्जा पारगमन लक्ष्यों की सफलता हेतु अपनी प्रतिबद्धता दोहरा सकता है।
- एक बार इन संयंत्रों में निवेश हो जाने के पश्चात, यह डिस्कॉम एवं उपभोक्ताओं को महंगे अनुबंधों में अवरुद्ध कर देगा तथा प्रणाली की अधिक्षमता को जोड़कर भारत के आरई लक्ष्यों को खतरे में डाल देगा।