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यूपीएससी परीक्षा के लिए प्रासंगिकता
जीएस 2: न्यायपालिका, न्यायिक समीक्षा
मुद्दा क्यों है?
- सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम की एक बैठक, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया/CJI) तथा चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल थे, 30 सितंबर को आहूत की गई थी, किंतु यह बैठक नहीं हुई एवं बाद में “बिना किसी अन्य विचार-विमर्श के बंद कर दी गई”।
- आगे के विचार-विमर्श को रोकने वाला तथ्य यह था कि केंद्रीय विधि मंत्री ने 7 अक्टूबर को एक पत्र द्वारा मुख्य न्यायाधीश यू.यू. ललित को अपने उत्तराधिकारी को नामित करने के लिए अनुरोध किया था, क्योंकि भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल 8 नवंबर, 2022 को समाप्त हो रहा है। बैठक के स्थगित होने तथा इसके पश्चातवर्ती समापन ने कॉलेजियम के कार्य की रीति पर ध्यान आकर्षित किया है।
कॉलेजियम का क्या कार्य है?
- कॉलेजियम प्रणाली, जिसमें वरिष्ठतम न्यायाधीशों का एक समूह उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्तियां करता है, लगभग तीन दशकों से चलन में है।
- इसका महत्व इस तथ्य में निहित है कि उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्तियों के साथ-साथ स्थानांतरण के मामले में भी इसकी राय प्रमुखता रखती है।
- इसका विधिक आधार तीन न्यायिक निर्णयों की एक श्रृंखला में पाया जाता है – जिसे आमतौर पर ‘न्यायाधीशों के वाद’ के रूप में संदर्भित किया जाता है – उच्चतर न्यायपालिका से संबंधित।
- इसके कार्यकरण की रीति को ‘मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर’ के रूप में निर्धारित किया गया है।
- संविधान कहता है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- ‘फर्स्ट जजेज केस’ में, न्यायालय ने माना कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श “पूर्ण एवं प्रभावी” होना चाहिए।
- न्यायाधीशों के द्वितीय वाद ने 1993 में कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की। इसने निर्णय दिया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को न्यायिक नियुक्तियों पर शीर्ष न्यायालय में अपने दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के एक कॉलेजियम से परामर्श करना होगा।
- 1998 में ‘थर्ड जजेज केस’ वाद, जो कि एक राष्ट्रपतीय अनुमोदन (प्रेसिडेंशियल रेफरेंस) था, ने कॉलेजियम को भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं उनके चार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों की वर्तमान संरचना तक विस्तारित किया।
सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम अपने कार्यों का निर्वहन कैसे करता है?
- अपारदर्शी होने के कारण कॉलेजियम के कामकाज की आलोचना की गई है।
- इसके प्रस्तावों एवं संस्तुतियों को सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर रखा जाता है, जिसमें इसके निर्णयों के बारे में प्रासंगिक जानकारी दी जाती है।
- यद्यपि, विचार-विमर्श की प्रकृति एवं क्या किसी विशेष उम्मीदवार की उपयुक्तता पर कोई आंतरिक मतभेद हैं, अज्ञात हैं।
- यह मुख्य रूप से प्रस्तावों को अपनाने एवं उन्हें अग्रेतर कार्रवाई हेतु केंद्रीय विधि मंत्रालय को भेजने की प्रणाली के माध्यम से कार्य करता है। यदि किसी न्यायाधीश की नियुक्ति का प्रस्ताव पुनर्विचार के लिए लौटाया जाता है, तो कॉलेजियम या तो इसे छोड़ सकता है या इसे दोहरा सकता है। जब कॉलेजियम पुनर्विचार के पश्चात अपने निर्णय को दोहराता है, तो यह सरकार के लिए बाध्यकारी होता है।
प्रसिद्ध ‘न्यायाधीशों के वाद’ में भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती की टिप्पणियां
“प्रत्येक शक्ति के प्रयोग में जांच तथा नियंत्रण होना चाहिए, विशेष रुप से जब यह महत्वपूर्ण एवं निर्णायक नियुक्तियां करने की शक्ति है तथा इसे एक ही व्यक्ति में निहित होने के स्थान पर हाथों की बहुलता से प्रयोग किया जाना चाहिए। संभवतः यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 124 के खंड (2) में इस आवश्यकता को प्रस्तुत किया कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों में से एक या अधिक न्यायाधीशों से परामर्श किया जाना चाहिए। किंतु इस प्रावधान के साथ भी, हमें यह प्रतीत नहीं होता कि सुरक्षा पर्याप्त है क्योंकि परामर्श के उद्देश्य के लिए सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के किसी एक या अधिक न्यायाधीशों का चयन करने के लिए केंद्र सरकार पर छोड़ दिया गया है। हम यह सुझाव देंगे कि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति को संस्तुति करने के लिए एक कॉलेजियम होना चाहिए। संस्तुति करने वाला प्राधिकरण अधिक व्यापक-आधारयुक्त होना चाहिए एवं व्यापक हितों के साथ परामर्श होना चाहिए।“ |
हाल के घटनाक्रम से क्या मुद्दे हैं?
- हालिया विकास से तीन प्रश्न उठ सकते हैं। एक यह है कि निर्णय लेने हेतु एक निर्धारित रीति होनी चाहिए, अर्थात व्यक्तिगत विचार-विमर्श के माध्यम से अथवा संचलन द्वारा या सुविधा के अनुसार दोनों साधनों को अपनाकर।
- दूसरा यह है कि क्या कॉलेजियम के सभी सदस्य लिखित रूप में अपना मत प्रकट करते हैं, या क्या वे मौखिक रूप से अपनी आपत्तियां व्यक्त करते हैं।
- एक संबंधित प्रश्न यह उठता है कि क्या सभी निर्णय सर्वसम्मति और सहमति से होने चाहिए।
- एक राय है कि बहुमत से एक या दो आपत्ति व्यक्त करने वाली सिफारिश, कार्यपालिका को सिफारिश को अस्वीकार करने या पुनर्विचार की मांग करने का एक अच्छा कारण दे सकती है।
- साथ ही, मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल के अंतिम महीने में कॉलेजियम द्वारा कोई विचार-विमर्श नहीं करने की आवश्यकता पर भी बहस होनी चाहिए।
- यह देखते हुए कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति वरिष्ठता द्वारा की जाती है, उनमें से अनेक का कार्यकाल मात्र कुछ महीनों के लिए ही होता है। यह परिपाटी निर्णय निर्माण की गति को मंद कर सकता है।
आगे की राह
- नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश करने का निर्णय कॉलेजियम का सामूहिक निर्णय है। मुख्य न्यायाधीश समानों में प्रथम से अधिक नहीं है।
- इस मामले में, यह प्रस्ताव कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने के लिए एक माह से भी कम समय शेष बचा हो तो कॉलेजियम को बैठक नहीं करनी चाहिए एवं अपना कार्यों का निष्पादन नहीं करना चाहिए, विधिक अथवा नैतिक रूप से तार्किक या उचित नहीं है।
- यह तर्क, यदि यह मान्य है, कॉलेजियम के प्रत्येक सदस्य के मामले में लागू होना चाहिए; जो इस तंत्र को पूर्ण रूप से अव्यवहार्य बना देगा।
- एक माह की अवधि के संबंध में कोई औचित्य नहीं है, यहां तक कि यह मानते हुए कि कुछ ऐसी अवधि होनी चाहिए जब नियुक्तियों के संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया जाता है।
निष्कर्ष
वर्तमान स्थिति के लिए काफी हद तक न्यायपालिका को ही दोषी ठहराया जाता है क्योंकि उसने स्वयं न्यायिक कार्यालय के कुछ विधियों एवं परंपराओं का उल्लंघन किया है। हमें न्यायाधीशों के लिए एक आचार संहिता की आवश्यकता है तथा यह एक दस्तावेज है जिसका प्रारूप वे अकेले ही तैयार कर सकते हैं।