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कर्मकार कल्याण के सिद्धांत की भांति, ईपीएफओ प्रवर्तन अधिकारी परीक्षा के लिए मजदूरी का आधुनिक सिद्धांत भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। यद्यपि मजदूरी के आधुनिक सिद्धांत से प्रश्न अभी तक परीक्षा में नहीं पूछे गए हैं, यह एक और संभावित क्षेत्र है जहां से प्रश्नों की संभावना हो सकती है। यह लेख परीक्षा के दृष्टिकोण से सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्रम कल्याण के सिद्धांतों की व्याख्या करता है।
मजदूरी निधि सिद्धांत
- प्रसिद्ध शास्त्रीय अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने इस सिद्धांत का विकास किया था।
- यह मानता है कि श्रमिकों को मजदूरी का भुगतान धन के एक पूर्व निर्धारित कोष (सामान्य तौर पर बचत) से किया जाता है जिसे उन्होंने मजदूरी निधि कहा है।
- उनके अनुसार, श्रम की मांग एवं मजदूरी की दर मजदूरी निधि के आकार पर निर्भर करती है। इसलिए, यदि मजदूरी निधि बृहत् है, तो मजदूरी अधिक होगी एवं यदि मजदूरी निधि नगण्य है तो मजदूरी कम होगी।
निर्वाह सिद्धांत
- इस सिद्धांत को डेविड रिकार्डो ने विकसित किया था।
- इस सिद्धांत के अनुसार, मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान किया जाता है जिसे ‘निर्वाह मजदूरी’ कहा जाता है ताकि वे निर्वाह करने में सक्षम हो सकें एवं बिना किसी वृद्धि या कमी के दौड़ में बने रह सकें।
- यह मानता है कि यदि श्रमिकों को निर्वाह स्तर से अधिक मजदूरी का भुगतान किया जाता है, तो श्रमिकों की संख्या में वृद्धि होगी एवं इससे मजदूरी में कमी होकर निर्वाह स्तर तक पहुंच जाएगी।
- जबकि, यदि श्रमिकों को निर्वाह मजदूरी से कम भुगतान किया जाता है, तो अन्य कारकों के साथ-साथ मृत्यु, अनाहार , भूख के कारण श्रमिकों की संख्या में कमी आएगी। यह मजदूरी की दरों को पुनः निर्वाह स्तर तक बढ़ा देगा।
- इस सिद्धांत को प्रायः ‘मजदूरी का लौह नियम‘ कहा जाता है, क्योंकि मजदूरी दर प्रत्येक समय निर्वाह स्तर पर बनी रहती है।
- एक-पक्षीय सिद्धांत होने के कारण प्राय: इसकी आलोचना की जाती है क्योंकि यह केवल आपूर्ति पक्ष की ओर से मजदूरी की व्याख्या करता है एवं श्रम के लिए मांग की उपेक्षा करता है।
मजदूरी का अधिशेष मूल्य सिद्धांत
- इस सिद्धांत का विकास कार्ल मार्क्स ने किया था।
- यह सिद्धांत मानता है कि अन्य की भांति, श्रम भी एक वस्तु है, जिसका क्रय किया जा सकता है। श्रम का क्रय करने हेतु, कीमत का भुगतान मजदूरी के रूप में किया जाता है।
- यह भुगतान उस स्तर पर है जो श्रम द्वारा वस्तुओं के उत्पादन के लिए किए गए प्रयासों से अत्यंत कम है एवं अधिशेष मालिक को जाता है।
- जिस श्रम का प्रतिकार (क्षतिपूर्ति) नहीं किया जाता है उसे ‘अधिशेष श्रम‘ कहा जाता है।
अवशिष्ट दावेदार सिद्धांत
- इस सिद्धांत का विकास फ्रांसिस ए वाकर द्वारा किया गया था।
- इस सिद्धांत के अनुसार, उत्पादन के चार कारक अर्थात, भूमि, श्रम, पूंजी एवं उद्यमिता हैं।
- उनका कहना है कि एक बार अन्य सभी तीन कारकों को प्रतिफल प्रदान करने के पश्चात जो शेष रहता है उसे श्रमिकों को मजदूरी के रूप में भुगतान किया जाता है।
- इस प्रकार, वह प्रतिपादित करते हैं कि, उत्पादन के चार कारकों में श्रमिक अवशिष्ट दावेदार है।
- इसकी आलोचना की जाती है क्योंकि यह मजदूरी के निर्धारण में आपूर्ति पक्ष के कारकों की अनदेखी करता है।
सीमांत उत्पादकता सिद्धांत
- इस सिद्धांत का प्रतिपादन फिलिप्स हेनरी विक-स्टीड एवं जॉन बेट्स क्लार्क द्वारा किया गया था।
- यह सिद्धांत बताता है कि मजदूरी की गणना अंतिम श्रमिक द्वारा किए गए उत्पादन के आधार पर की जाती है, जिसे प्राय: सीमांत श्रमिक कहा जाता है एवं उसके उत्पादन को ‘सीमांत उत्पादन’ कहा जाता है।
मजदूरी का सौदा सिद्धांत
- इस सिद्धांत का विकास जॉन डेविडसन ने किया था।
- उनका मानना था कि मजदूरी का निर्धारण श्रमिकों / ट्रेड यूनियनों और नियोक्ताओं की सौदेबाजी की शक्ति पर निर्भर करेगा।
- यदि श्रमिक सौदेबाजी की प्रक्रिया में सशक्त हैं, तो मजदूरी अधिक होगी। बशर्ते, यद्यपि, नियोक्ता एक सशक्त भूमिका अदा करता है, तो मजदूरी कम होगी।
मजदूरी के व्यवहारवादी सिद्धांत
- अन्य वैज्ञानिकों के मध्य हर्जबर्ग, मास्लो जैसे व्यवहारवादी वैज्ञानिकों का मानना था कि मजदूरी मानदंडों, परंपराओं, रीति-रिवाजों, सद्भावना एवं सामाजिक दबाव से निर्धारित होती है।
- उनके सिद्धांत मजदूरी स्तर पर कर्मचारी की स्वीकृति, प्रचलित आंतरिक मजदूरी (वेतन) संरचना, एवं धन पर कर्मचारी के विचार जैसे तत्वों पर आधारित हैं।