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संपादकीय विश्लेषण: टू द पोल बूथ,  विदाउट नो डोनर नॉलेज 

चुनावी ऋण पत्र: प्रासंगिकता

  • जीएस 2: विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए सरकार की नीतियां एवं अंतः क्षेप तथा उनकी अभिकल्पना एवं एवं कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे।

चुनावी ऋण पत्र: संदर्भ

  • 2021 के अंत में, केंद्र सरकार ने भारतीय स्टेट बैंक को चुनावी ऋण पत्र की एक नई किश्त जारी करने एवं नकदीकरण (भुनाने) हेतु अधिकृत किया, जो 2018 में प्रारंभ होने के बाद से 19वां है।

चुनावी ऋण पत्र की आलोचना

  • पारदर्शिता का अभाव: चुनावी ऋण पत्र योजना ने नागरिकों को सूचना, विशेष रूप से राजनीतिक वित्तीयन (फंडिंग) पर तथ्यों तक पहुंच के अधिकार से वंचित करके, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस योजना को जारी रखने की अनुमति प्रदान की है तथा इसके संचालन पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया है।
  • पक्षकारों पर कोई दायित्व नहीं: राजनीतिक दलों का चुनावी ऋण पत्र के माध्यम से प्राप्त प्रत्येक चंदे पर जनता को विवरण प्रदान करने का कोई दायित्व नहीं है। इसके अतिरिक्त, कंपनियों को उस दल के नाम का खुलासा करने की भी बाध्यता नहीं है,  जिस दल को उन्होंने दान दिया था।
  • अलोकतांत्रिक संशोधन: पिछले प्रतिबंधों को समाप्त करते हुए संशोधन किए गए हैं, जिसने किसी कंपनी को विगत तीन वर्षों के दौरान अपने निवल लाभ का 5% से अधिक दान करने की अनुमति नहीं दी थी।
    • इसी तरह, एक कंपनी को दान करने से पूर्व न्यूनतम तीन वर्ष तक अस्तित्व में रहने से संबंधित एक अधिदेश भी हटा लिया गया था।

चुनावी ऋण पत्र: सरकार के तर्क

  • भारत सरकार (जीओआई) ने कहा कि मतदाताओं को यह जानने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है कि राजनीतिक दलों का वित्त पोषण किस प्रकार किया जाता है।
  • भारत सरकार ने यह भी दावा किया कि यह योजना चुनावों के वित्तपोषण में काले धन की भूमिका को समाप्त करने में सहायता करती है।

चुनावी ऋण पत्र: सरकारी तर्कों से जुड़े मुद्दे

  • सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार यह माना है कि मतदाताओं को चुनाव के दौरान स्वतंत्र रूप से स्वयं को अभिव्यक्त करने का अधिकार है। साथ ही, मतदाता उन सभी सूचनाओं के हकदार हैं जो इस अधिकार को उद्देश्य एवं शक्ति प्रदान करते हैं। निश्चित रूप से, चुनावी प्रक्रिया में सार्थक रूप से भाग लेने के लिए, एक नागरिक को उम्मीदवारों का समर्थन करने वालों की पहचान पता होनी चाहिए।
  • सर्वोच्च न्यायालय में भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा दायर हलफनामों से ज्ञात हुआ है कि यह योजना चुनावों में काले धन की संभावित भूमिका में वृद्धि करती है।

चुनावी ऋण पत्र: न्यायपालिका की भूमिका

  • भारतीय रिजर्व बैंक ने कथित तौर पर योजना के प्रारंभ के विरुद्ध सरकार को सलाह दी थी।
  • 1957 में न्यायाधीशों ने चुनावों के असीमित कॉरपोरेट फंडिंग से उत्पन्न खतरों के प्रति आगाह किया था।
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एम.सी. छागला ने पूर्वानुमान लगाया कि कंपनियों को राजनीतिक दलों को वित्त प्रदान करने की अनुमति देने का कोई भी निर्णय “इस देश में लोकतंत्र को वश में कर सकता है एवं यहां तक ​​​​कि लोकतंत्र को कुचल भी सकता है”।
  • कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पी.बी. मुखर्जी का विचार था कि व्यक्तिगत रूप से नागरिक, यद्यपि नाम में समान हैं,अपनी अभिव्यक्ति में गंभीर रूप से अक्षम होंगे क्योंकि उनके द्वारा दिए गए योगदान की मात्रा कभी भी बड़ी कंपनियों के योगदान की मात्रा के समतुल्य होने की संभावना नहीं कर सकती है।
  • अतः, यह उचित समय है कि सर्वोच्च न्यायालय भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चुनावी ऋण पत्र योजना की उपयोगिता पर निर्णय करे।

 

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